अँधेरे में सुकून जलाये बैठे है
ना ही आशियाना न ही एक दाना खाने को
जूझती ज़िन्दगी से एक आश लगाये बैठे है,
किसको कोसे तकदीर को या बीते जमीर को
दुखो की जलती भट्टी में, सुख का आच लगाये बैठे है
जहा ने जब भी ठुकराया झुटलाया हमारे सपनो को
रूह से दुवा, मगर दिल से प्यार जताए बैठे है
एक तो वक़्त रूठा और ये घिनौनी सी दुनिया
भेड़चाल भरी दुनिया में कहा किसी को फुर्सत
सुक्र है "अंश" का जो दर्दे-ए-बया, कागज़ पे लिखाए बैठे है
या खुदा सोजा तू भी काली रातो के संघ
"अंश" तो आज अँधेरे में सुकून जलाये बैठे है..!
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